Tuesday, May 27, 2008

कभी कभी…... यह मन

कभी कभी…... यह मन

कभी धवल चाँद की लाज सा ..
बादलों मैं छुप जाता है मन…
कभी उन्मुक्त पाखी सा..
बावरा हो उद्द जाता है मन
कभी धैर्य का अन्मोल पाठ ..
स्वयं ही पढ़ लेता है मन…
कभी विचलित हो, बौराया सा
भटकता , खोता है मन …

कभी पाता है पन्नों मैं लिखे
आधे अधूरे शब्दों मैं अर्थ.
कभी क्षिस्तिज की सीमाओं से पर
ढूँढ लाता है नए बन्धन.
कभी अनभिज्ञ बन, शैशव सा
स्नेह निर्झर बन जाता है मन..
और कभी बाँध बन उन्माद प्रवाह को,
सीमित, व्यधित कर लेता है मन.

कभी इन्द्रधनुषी रंगों मैं
घुल जाता है, मिल जाता है..
और कभी हठी बालक सा,
रंगविहीन, क्लेशित हो जाता है.
कभी चाहता है की छू ले
नभ की ऊँचाइयों को वह भी...
और कभी बस इस हाध मांस के
पिंजरे से खुश हो जाता है.

और कभी यह मन कहता है
क्यों होते इतने बन्धन हैं
क्यों रहते हैं सहमे सहमे..
क्यों करते बस समर्पण हैं....

बस कभी कभी…... यह मन कहता है

4 comments:

abhivyakti said...

mann ke kisi kone mein kuch sundar baatein bunn-tii hain,
aashayen, icchayen unmukt ho nirbhay uddti hain,
saare bandhan , sab chintayen, iske baad aati hain,
usi kone mein baith-ke tumse ki kaii baatein yaad aati hain...

Miss you..
Absolutely beautiful! take care.

yours truly said...

Kabhi aatma ke astitva ko nakarta hai man,
to kabhi usi ko disha dikhata hai ye man..


nice poem but after a while it becomes monotonous, don't mind. I am just being a true critic here, may be officiously.

Anonymous said...

woh sab theek hai...
where is the "kuchh ham bhi hain kuch tum bhi "

hadd hai

bdsearch said...

good site ,