कभी कभी…... यह मन
कभी धवल चाँद की लाज सा ..
बादलों मैं छुप जाता है मन…
कभी उन्मुक्त पाखी सा..
बावरा हो उद्द जाता है मन
कभी धैर्य का अन्मोल पाठ ..
स्वयं ही पढ़ लेता है मन…
कभी विचलित हो, बौराया सा
भटकता , खोता है मन …
कभी पाता है पन्नों मैं लिखे
आधे अधूरे शब्दों मैं अर्थ.
कभी क्षिस्तिज की सीमाओं से पर
ढूँढ लाता है नए बन्धन.
कभी अनभिज्ञ बन, शैशव सा
स्नेह निर्झर बन जाता है मन..
और कभी बाँध बन उन्माद प्रवाह को,
सीमित, व्यधित कर लेता है मन.
कभी इन्द्रधनुषी रंगों मैं
घुल जाता है, मिल जाता है..
और कभी हठी बालक सा,
रंगविहीन, क्लेशित हो जाता है.
कभी चाहता है की छू ले
नभ की ऊँचाइयों को वह भी...
और कभी बस इस हाध मांस के
पिंजरे से खुश हो जाता है.
और कभी यह मन कहता है
क्यों होते इतने बन्धन हैं
क्यों रहते हैं सहमे सहमे..
क्यों करते बस समर्पण हैं....
बस कभी कभी…... यह मन कहता है
Life depends on the liver etc.
2 weeks ago